हरिद्वार, जहाँ हर सुबह गंगा आरती के मंत्रोच्चार से आकाश गूंजता है और हर शाम दीपदान की रोशनी श्रद्धा का साक्षात्कार कराती है — उसी तीर्थनगरी की आत्मा आज दलालों, ठेकेदारों और भ्रष्ट अफसरशाही की मिलीभगत से रोजाना घायल हो रही है। यह केवल ‘व्यवस्था की कमी’ नहीं, बल्कि आस्था के बाज़ारीकरण की सुनियोजित योजना है, जिसमें पुलिस, नगर निगम और धर्म की आड़ में व्यापार करने वाले तत्वों की भागीदारी है।
गंगा किनारे व्यापार का तंत्र, श्रद्धालु बना शिकार
हर की पौड़ी, जो भारत की सबसे पवित्र स्थानो में गिनी जाती है, वहां आज श्रद्धा से अधिक दलाली की भाषा बोली जा रही है। घाट पर जगह-जगह फेरीवाले, पॉलिथीन विक्रेता, और ‘धार्मिक एजेंट’ यात्रियों को गुमराह कर रहे हैं। 10 रुपए की पूजा सामग्री श्रद्धालुओं को 100 में बेची जा रही है। घाटों के नाम पर मुनाफे की मंडी सज चुकी है, जिसमें सबसे बड़ा शिकार बनता है – आम श्रद्धालु।
गंगा किनारे सत्ता का ‘ठेका’
हर की पौड़ी की पुलिस चौकी और नगर निगम की मिलीभगत से अवैध वसूली और कब्जेदारी का खेल हर दिन चलता है। उत्तर प्रदेश शासनकाल से लेकर उत्तराखंड के गठन के बाद तक, पुलिस चौकी का प्रभार लाखों की बोली पर बांटा जाता रहा है। कई पूर्व अधिकारी स्वीकार चुके हैं कि 30 से 40 लाख रुपये देकर पुलिस चौकी का चार्ज मिलता है, और फिर घाटों पर ‘ठेकेदारी धर्म’ शुरू होता है।
निगम कर्मचारी बने ‘किंगपिन
नगर निगम के कुछ हवलदारों ने सफाई के बजाय सुपरविजन और ठेकेदारी का काम संभाल लिया है। घाटों के आसपास अवैध फड़ और दुकानें उन्हीं के संरक्षण में संचालित हो रही हैं। पॉलिथीन, फूल, और पूजा सामग्री के अवैध कारोबार में ये कर्मचारी ठेकेदारों से प्रति दिन 3000–8000 रुपए तक की वसूली कर रहे हैं।
तीर्थ के नाम पर खड़ी हुई दलाली की व्यवस्था
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हर की पौड़ी अब आस्था का नहीं, दलाली और संरक्षण शुल्क का केंद्र बन चुका है। घाटों पर दलाली कर रहे तथाकथित जींस में सोने की चैन से लैस मोडल
पाखंडी दलाल, एजेंट, और व्यापारियों की पूरी फौज है, जो पुलिस और निगम की शह पर हर रोज लूटपाट करती है। अगर कोई श्रद्धालु विरोध करता है, तो उसे ‘व्यवस्था’ का हवाला देकर चुप करा दिया जाता है।